अ़रफ़ा के दिन
मुझे अल्लाह पर गुमान है कि अ़रफ़ा का रोज़ा एक साल क़ब्ल और एक साल बा'द के गुनाह मिटा देता है ।
सय्यिदा आ़इशा सिद्दीक़ा رضی الله تعالی عنها से मरवी है कि नबी-ए-अकरम नूर-ए-मुजस्सम ﷺ यौमे अ़रफ़ा के रोज़े को हज़ार रोज़ों के बराबर बताते थे, मगर ह़ज करने वालों को जो मैदाने अ़रफ़ात में हों उन को इस रोज़े से मन्अ़ फ़रमाया । चुनान्चे फ़ुक़हा-ए-किराम फ़रमाते हैं कि अ़रफ़ा का रोज़ा ग़ैरे ह़ाजी के लिये सुन्नत है और ह़ाजी के लिये सुन्नत नहीं बल्कि ऐसे कमज़ोर को जो रोज़ा रख कर अरकाने ह़ज अदा न कर सके मकरूह है ।
नोट: जिन के ज़िम्मे फ़र्ज़ रोज़े क़ज़ा हों उन्हें चाहिये कि अदा-ए-क़ज़ा की निय्यत से रोज़ा रखे । اِن شَآءَ اللّٰه यौमे अ़रफ़ा के रोज़े की बरकत भी ह़ासिल होगी
कोई ऐसा दिन नहीं जिस में अल्लाह तआ़ला अ़रफ़ा के दिन से बढ़ कर बन्दों को जहन्नम से आज़ाद फ़रमाता हो ।
उ़लमा-ए-किराम फ़रमाते हैं कि साल भर के तमाम दिनों से ज़्यादा नवीं (9 वीं) ज़िल ह़िज्जा को गुनहगार बख़्शे जाते हैं । 'अ़ब्द' के उ़मूम से मा'लूम होता है कि इस दिन आ़म मुसलमानों की बख़्शिश होती है चाहे वोह ह़ाजी हों या ग़ैरे ह़ाजी । एक और रिवायत के मुत़ाबिक़ यौमे अ़रफ़ा से ज़्यादा किसी दिन में शैत़ान को ज़्यादा सग़ीरो ज़लीलो ह़क़ीर और सख़्त ग़ुस्से में भरा हुआ नहीं देखा गया और इस की वजह येह है कि इस दिन में रह़मत का नुज़ूल और अल्लाह ﷻ का अपने बन्दों के बड़े बड़े गुनाह मुआ़फ़ फ़रमाना शैत़ान देखता है ।
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